18 जन॰ 2009

एक तनहा पेड़
एक दरवेश की तरह
मुझे बुलाता है
समझाता है
दुनिया का दस्तूर
जब तक हरे भरे थे
विकट थे , विकराल थे
पंछी आते थे पन्हा को
मुसाफिर aate the थकान मिटने को
आज तनहा यहाँ
दुनिया को कुछ दे नहीं सकता
तो दुनिया ने बेगाना किया
अपनों ने ही तो ये सिला दिया
परन्तु खुदा की सभी नियम्नते तो
मेरे लिए ही है
तुम्हारी आँखों का सकूं हों
तुम्हारी जज्बातों का
तुम्हारी खवा एइशों का सिला हूँ





2 टिप्‍पणियां:

बक बक को समय देने के लिए आभार.
मार्गदर्शन और उत्साह बनाने के लिए टिप्पणी बॉक्स हाज़िर है.