31 अक्तू॰ 2010

क्रांति.......... हर क्षेत्र में........

इस धरा पर अगर मेरे जैसे लोग जन्म ले कर शांति के लिए अनाप शनाप तरीके आजमा रहे है तो गलत है ....... सवेदनाओ को एक किनारे कर के समाज में एकरस हो जाना ही जीने की कला है... या फिर भावनाओं में जकड कर अपने को समाज से किनारे रखना .... दूसरी कला. अब अपने पर निर्भर करता है की कौन सी कला में निपुण होकर जीने लायक है.
हम है उस प्रभु के दासा.......
देखन आये जगत तमाशा..
इस तर्ज़ पर दूर से दुनिया को देखना और उस में खुद निर्लेप न होना. या खुद को दूर ही रखना - हर वाद, धारा, सम्युदाय, क्षेत्र से.

विश्व साहित्य प्रसिद्ध साईंस फिक्शन कृति ब्रेव न्यू वर्ल्ड के लेखक आल्डूअस हक्सले साहब के कथन हैं -
गंगा में मोक्ष की अभिलाषा लिए लोगों को डुबकी लगाते देख उनका चिन्तक मन क्लांत हो गया ..उन्होंने आगे लिखा -
"
भारतीयों ने जीवन के संघर्ष से मुंह मोड़ काल्पनिक सत्ताओं का सृजन कर लिया -आत्मा परमात्मा और मोक्ष जैसी धारणाएं इसी का परिणाम है !"

मित्र सुरेश नागपाल जी के शब्द है....
क्यों, भई, क्यों चाहिए तुम्हे शांति......... कर्म करो....... शांति वान्ति कहीं नहीं है. तुम कहते शांति ..... नहीं मिलती ... और अब मेरे ख्याल से मिलनी भी नहीं चाहिए. यहाँ मानव जन्म में शांति का क्या काम. कर्म की बात करनी चाहिए..... शांति तो उन संतो को भी नहीं मिलती जो दूर कंदराओ में बैठे है. जो संन्यास धारण करके भी अखाड़ों और पदवी की राजनीति में उलझे रहते है.. और तुमने तो मात्र अपने नाम के आगे मात्र बाबा लगाया है.
अन्न धन और वैभव से परिपूर्ण सेठ का पता नहीं क्या हुवा...... शांति की तलाश में चल पड़ा. दूर किसी जंगल में जाकर राम जी के चरणों में धूनी जमा कर बैठ गया और.... प्रभु को सेठ की जिद्द के आगे नतमस्तक होकर दर्शन देने पड़े. तपस्या से खुश होकर उस नगर सेठ को राष्ट्र सेठ बनाने के धन-धन्य इत्यादी .. सेठ में कहा प्रभु मुझे ये सब नहीं चाहिए.......
मुझे बस शान्ति चाहिए.. राम जी ने कहा ... सेठ, तुमने रामायण पढ़ कर ऐसा सोच रहे हो........ मानव जन्म में तो मुझे कहाँ शान्ति मिली थी......सारी जिंदगी मात्र परेशानी, संघर्ष के अलावा क्या थी..... क्या मैं भी शांत मन से अजोध्या में एक किनारे बैठ कर जिंदगी नहीं काट सकता था..........
सत्य है....... इश्वर ने अवतार लिए है.. मात्र हमको रास्ता दिखाने को ही हैं.


...... और हम लोग अंधभक्ति में पड़ कर घंटी बजाने लग जाते हैं और उस कहानी के तत्व ज्ञान को भूल जाते हैं........
शान्ति नहीं............
अब क्रांति की बात होनी चाहिय........
भारत वर्ष में हर क्षत्र में क्रांति चाहिए.........
हम यानी लगभग १.२५ अरब की संख्या वाला देश जिसमे लगभग पच्चास प्रतिशत युवा माने तो २५ साल से भी कम की उम्र के हैं...............
और यही युवा पीडी किसी न किसी बाबा, संत फकीर के चक्कर में पड़ी है....... कहीं जागरण और कहीं साईं संध्या के लिए दिन रात एक कर रहे हैं. 
और हमरा अपना देश बनाने के लिए चीन से श्रमिक भी आने लग गए....... 
इस धार्मिक नशे और आलस्य का जीवन छोड़ कर एक नाद कर देना चाहिए.............
क्रांति.......... हर क्षेत्र में........
हम लोग छोटे-छोटे कार्य में निपुण होकर बड़े-बड़े प्रोजेक्ट को बनायेंगे..........


बहरहाल, जय राम जी की 

27 अक्तू॰ 2010

प्यार आजकल......... Love Today.












foto courtsey: www.chrisspagani.com


देखो मेरे पीछे मत आना........
मैं तुम्हारे प्यार में मजबूर हूँ मैना
नहीं .... हमें इसी दुनिया में रहना है..
देखो मैना.. तुम्हारे बगैर ये दुनिया मुझे मंज़ूर नहीं.
नहीं हमारे घर वाले क्या कहेंगे.
घर वालों से पूछ कर प्यार किया था क्या.....
वो मेरे नादानी भरे जज्बात थे......
पर मैं तो सोच कर तुम्हारे साथ चला था..
अब कुछ नहीं हो सकता......
नहीं मैना, तुम वायदे तोड़ नहीं सकती...
वो मेरा बचपना था.........
नहीं, तुम तो जवान थी......
हाँ, पर अब मैं समझदार हूँ......
मैना, मैं भी उस समय समझदार था..
पर तुम्हारी निगाह मेरे बाप की दौलत पर है..
मैना, अगर तुम्हारा बाप अमीर है तो मेरी क्या गलती...
तुमने और लड़कियों से भी तो फ्लर्ट किया....
वो तो मेरे पीछे थी, मैं ही हेंडसम था .. इसमें मेरा क्या कसूर....
देखो, मेरे घरवालों ने मेरा रिश्ता एक अच्छे घर में तय किया किया है...

तो क्या मैं मिस्टर शिनॉय को वो MMS मेल कर दूं ....


और संवाद खत्म हो जाता है..

26 अक्तू॰ 2010

सच इस महंगाई में तो पतिव्रता नारी बनना भी कित्ता मुश्किल है....

Photo courtsey : www.getwallpaper.net


ऐसा देश है मेरा, जहाँ एक दिन पहले ६० रूपये की मेहँदी हाथों पर लग रही थी..... कल २५० रूपये लिए जा रहे थे.... नारियल .... १० रूपये वाला ३० रूपये का मिल रहा था... पार्किंग में जगह नहीं थी....... फैनी ८० रूपये से बढकर २०० रूपये किलो के भाव थी........
.        कई तरह के मोटे-पतले, दुबले, गोरे-काले से लड़के सड़क के किनारे बैठ कर मेहँदी लगा रहे थे. पतिदेव (खासकर नए-नए पति बने है) इर्ष्या नज़र से अपनी पत्नी का हाथ उस मेहँदी लगवाने वाले हाथों से देख रहे थे........ साला पैसे भी लेता है और देखो ..... कैसे हाथ को पकड़ कर गोद में रख कर मेहँदी लगा रह है.
.        देखो, इस बार में इन लड़कियों से मेहँदी नहीं लगावायुंगी ..... लड़के लोग ही सही मेहँदी लगाते हैं श्रीमती पिछले अनुभव सुनाने लग गई और हम तुनुक कर एक मोटी आंटी के सामने उसे बिठा देते हैं ... क्या है की अपन में "इर्ष्या" तो लेश मात्र भी नहीं है.
..        गुब्बारे बेचने वाले को सुरक्षाकर्मी गिरबान से पकड कर मार्किट से बाहर घसीटता हुवा ले जा रहा था..... एक भिखारी को २ रूपये का सिक्का दिया ........... बुरा सा मुँह बनाकर मन ही मन गाली देता हुवा चला गया.......... तम्बाकू की पुडिया न जेब में थी और नहीं ही उस सुगन्धित मार्केट में उपलब्ध हो रही थी.... तुनक और बढती जा रही थी. ..... एक साहेब हथेली पर BBC (बुधिवर्धक चूर्ण = सुरती का नामकरण सलील वर्मा जी का कोपी राईट है) घिसते हुवे नज़र आये तो .... उन्ही से दोस्ती गांठ ली....
..        एक साहेब बीवी से उलझे दिखे......... इत्ती भीड़-भाड़ है .... ३-४ दिन पहले नहीं मेहँदी नहीं लगवा सकती थी.... एक की जगह १० मांग रहे है और टाइम और खोटी हो रहा है.. शराब सर पर चढ़ कर कर सच उगल रही थी.... पर बीवी आँखे दिखा रही थी.... अंतत शराब जीतती दीख रही थी...
सच इस महंगाई में तो पतिव्रता नारी बनना भी कित्ता मुश्किल है.... 

जाते जाते ......
संता सिंह जब घर पहुंचा तो बीवी ने पूजा की तैयारी कर रखी थी.... घर का वातावरण बहुत आलौकिक लग रहा था..
मैं क्यया भागवान ऐ की कर रही है...
कुज नई, तुवाडा ही स्यापा कर रही हाँ.......


और हाँ, अभी एक मित्र का SMS आया है, बिलकुल सटीक बैठ रहा है इस मौके पर :
लक्ष्मी जी का वाहन, उल्लू एक बार नाराज़ हो गया.... बोला ... ये माता, आपकी पूजा दुनिया करती है पर मुझे कोई नहीं पूजता..
इस पर माता बोली... परेशान मत हो.... आज तुने शिकायत की है तो ठीक है. अब मेरी पूजा से ठीक ११ दिन पहले तेरी भी पूजा होगी.. और इसी प्रकार उस दिन को "करवाचौथ" कहा जाने लगा.

बहरहाल, जय राम जी की 

24 अक्तू॰ 2010

कुछ विसंगतियों भरी बात

आईये, कुछ विसंगतियों भरी बात करें.
हमारे देश में जो प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण छात्र होते हैं – बहु-मुखी व्यक्तित्व के धनी... कहीं तकनिकी, इंजीनियरिंग अथवा डाक्टरी विद्या में परांगत होकर – ऐसा ही व्यवसाय चुनते है और इनमे से भी कई महापुरुष ब्लोग्गर बनकर हिंदी और समाज सेवा का वर्त धारण करते हुवे खाली समय इन्ही सब (चिरकुट???) कार्यों में जीवन खपा देते हैं.
द्वितीय श्रेणी वाले कम नहीं रहते ....  MBA  करके प्रशासनिक कार्यों में दक्षता हासिल कर उपरोक्त प्रथम श्रेणी उत्तीर्ण के छात्र को संचालित करते हैं. जीवन क्षेत्र में यही द्वितीय श्रेणी वाले ही मौज करते नज़र आते हैं.
तृतीया श्रेणी के पढाई में कमजोर छात्र – परतुं कारस्तानी में उच्च पदक विजेता – राजनीति में हाथ आजमा कर पार जाते हैं व उपरोक्त वर्णित दोनों श्रेणियों को संचालित करते हैं........
एक और तबका भी होता है – विद्यालआय में – पढाई में बिलकुल ही फ़ैल किस्म के योधा ... जो पढाई को तुच्छ विद्या जानकर मात्र बदमाशी में ही सर खपाते हैं – व गुरुजनों और सहपाठियों के सर फोड़ते हैं....... ये तबका उपरोक्त सभी श्रेणियों पर राज करते हैं..........

ऐसा देश है मेरा.......... 
क्या ख्याल है ?
हैं न अपना विविधतापूर्ण देश.............


जय राम जी की



21 अक्तू॰ 2010

आज दिन में तीन चुटकियाँ

आज दिन में तीन चुटकियाँ सुनाने को मिली.......... लिख रहे हैं....

अरे बाबा, उद्घाटन समारोह और समापन समारोह की टिकट तो मिली नहीं न ही देख पाए........ अब कृपया .... cwg investigation programme तो देख लें.
सर, चिंता मत कीजिए ये भी लाइव दिखाया जायेगा.

XXXXXXX

ये अमर बेल है सर, जिस पेड में फैलती है, पलती है ....... उसे ही सुखा देती है.... ठीक इन्ही कामरेडों की तरह........
फिर वो पेड तो खत्म हों जाता है और ये अमर बैल ही नज़र आती है....... और वो पेड भी अमर बैल वाले पेड के नाम से पुकारा जाता है.

XXXXXXXXX

तीसरी चुटकी हैं श्रीमान जगदीश्‍वर चतुर्वेदी जी, गूगल बाबा में सर्च करके दूंड लेना और पढ़ का हंस देना........... और हाँ ज्यादा दिमाग मत लगाना ...... खामखा आपका तो बी पी हाई हों जाएगा ..... पर उस बंदे को कोई फर्क नहीं पड़ेगा.........

20 अक्तू॰ 2010

आज इन शहनाइयों को बजने दो...

बहुत मुश्किल है दिल में पैदा हुवे जज्बातों को शब्द देना या फिर लफ़्ज़ों में अपनी भावनाओं को व्यक्त करना. सचमुच बहुत ही मुश्किल है......... कहीं शब्द कम पड़ जाते है ..... कहीं लय नहीं बन पाती ... पर क्या करें भावुक मन है .... और भावना में बह कर लिख रहे हैं.... इस आशा के साथ की गुस्ताखियाँ माफ होंगी.


आज इन शहनाइयों को बजने दो............
इस अँधेरी रात में
चाँद मुबारक हो तुम्हे
हमारे दिल की इस बेकरारी में
तुम्हे दिल का करार आ जाये ..
तुमने आशिकी की हमसे
और सेहरे कि लड़ियों में सजती
हमारी हसरतों को परवाज़ चढ़ने दो
बहकते उन जज्बातों में भी
तुम जो न रुसवा हुवे ज़माने से
और हमसे ही रूठ गए ख्वाब हमारे ..
जी जायेंगे हम इन अंधेरों में
लेके नाम तुम्हारा
तुम्हे सब रोशनियाँ मुबारक हों
आज इन शहनाइयों को बजने दो............
जरूरी नहीं है
हर अफ़साने का एक मुकाम हों...
हमें इस सेहरा में ...
यूँ तन्हा गर्द हों जाने दो ..
आज इन शहनाइयों को बजने दो............

16 अक्तू॰ 2010

आज अमृतयुक्त नाभि न भेदो........... कविता

आज अमृतयुक्त नाभि न भेदो..............

हे राम
आज अमृतयुक्त नाभि न भेदो..............
हे धनुर्धारी .......
दशानन ही क्यों ......
क्या उसने माँ सीता का हरण किया था..
पर यही पाप तो आज दोहराया जा रहा है.
बस सीता माता की जगह
किसी जनक की बेटी सिसक रही है.
अशोक वाटिका तो हर फ़ार्म हाउस में चमक रही है.
और हे मर्यादा पुरषोत्तम...
आज तुम कितने रावण मारोगे....
वो तो दस मुहं के साथ एक शरीर था.....
आज कई शरीर है पर
चेहरा एक का भी नहीं दीखता...
राक्षसों की इस भीड़ में
रावण नहीं पहचान में आता 

XXXXXX

कैसे संहारोगे  ?

देव-दानव सभी एक से....
बैठे एक ही पांत में..
मोहिनी परोस रही अमृत
सभी कर रहे पान ....
कौन विचारेगा 
कैसे पहचानेगा..
देव को – दानव को
निर्बल चंद्र अब और भयभीत
जिसने राहू को था पहचाना
अब तक छुपता फिरता है...
उसी राहू से
जो मौका पाकर फिरसे ग्रस्तता है .....
निर्बल शक्तिहीन चन्द्र को...
हे सुदर्शन धारी ...
दौड़े चले थे तुम 
– चक्र लिए कर में.
आज जब
देव दानव दोनों सम
कैसे संहारोगे  ?

15 अक्तू॰ 2010

भाई तू खत्री है ......... अपने धर्म का पालन कर .... प्रेस संभाल....

     प्रिये मित्र है – रवि रस्तोगी......... उनकी भी प्रेस है – हमरे बगल में ही.  आते है तो वातावरण को उत्साहित कर देते है – बेबाक बोलते हैं : शब्द-अपशब्द सभी कुछ. आज आ धमके ...... बाबा चाय मंगवाओ......

 हम शरद कोकास जी के ब्लॉग पर लिखी विम्मी जी की कविता का पाठ आरंभ कर देते हैं – उनको सुनाने के लिए................. पर आज रस्तोगी जी दूसरे मूड में है.  उवाचने लगते हैं. :

भाई तू खत्री है ......... अपने धर्म का पालन कर .... प्रेस संभाल..........
क्या इन झा, मिश्र, पाण्डेय के चक्कर में रोजगार खराब कर रहा है....
इनको तो बातों का खाना .......
तू तो फरमा छाप और चालान बना.......
परचा बना और तक्काज़ा कर.......
कविता मत सोच......... न कविता टाइप कर.......
जिस का पैसा मिले वही टाइप कर......
जिस का पैसा मिले वही छाप
काहे इन कवि खावि के चक्कर में क्यों अपना दिमाग खराब करते हो.

एक बार मुझे घूर कर रस्तोगी जी फिर बोलते हैं:
इ चिट्ठे-विट्ठे कहीं रोटी थोड़े ही देते हैं.........
ई तो बस टेम खोटी करने का जरिया है..........
काहे फ़ालतू चिटठा जगत खोल कर बैठा है......
कोइऊ कुछ भी लिखे ...... तुम्हे का.....
कोइऊ कुछ भी टिप्पियाए तुम्हे का.

काहे तडके तडके – दिमाग दही कर के इहाँ बैठ जाते हो......
जाब छापो.....
डिलिवेरी करो....
परचा बनाओ.........
आगे पहुंचाओ........
और वसूली करो...
इससे ज्यादा मत सोचो......

बस
इससे जयादा सोचोगे....................
तो बर्बाद कर देंगे ई सब मिल कर....

कोनों रोटी पूंछने नहीं आएगा..........
विश्वास नहीं तो पूछे लो.. एक आधे को मेल कर के....
एको टेम खिला भी दें तो.......
दूर रहो...
इस सब ब्लोगर जात से...........
कोनों नहीं आवेगा........

ई सब यू पी – बिहार वालों का मौज है.............
धान बहुत है....
खाने को भी
और बेचने को भी.......
तुम्हरा का है........
ले दे के एगो प्रेस है.........
एका चलाओ .....
और मौज काटो.

तुम्हो कोई कवि लेखक-शेकक तो हो नहीं..........
नाही कोई दाडी वाला बदनाम शायर हो...........
ना ही कोई बड़ी-बड़ी बात कर
    कोट पैंट पहिन कर ऐ सी कमरे में
    कैमरे के आगे बोलने वाला...........

तुम्हो एक छापक हो .......
जो दुनिया की बक बक छापता है.....
और बिना टिपण्णी दिए......
पैसा लेता है........
ओऊ काम करो न.....


रस्तोगी जी दिमाग जागरण का काम कर रहे हैं – चाय कि चुस्कियों के साथ. हो हम मज़े मज़े से टाइप किये जा रहे हैं. जब पोस्ट कर दूंगा ..... उनको फिर पढ़ने के लिए कहूँगा.

........... आप क्या कहते हैं......
जय राम जी की.


12 अक्तू॰ 2010

दो पैग - शांति और प्रभु दर्शन .

शान्ति का दान दीजिए.........
कृपया शांत रहिये........
जैसे शब्द कई जगह लिखे होते हैं..... कई बार सोचते थे की शांत ही तो हैं.
पर ८-१० घंटे घर में बिलकुल एकांत में बैठने पर ये बात समझ आ जाती है. मोबाइल को स्विच ऑफ कर दीजिए...... लैंड लाइन फोन उठा कर रख दीजिए........... सौगंध खाइए .......  की किसी भी स्क्रीन के सामने नहीं बैठेंगे.  खुद चाय भी मत बनाइये.......... किताबों को भी शेल्फ में रखी रहने दो..
शांति........
अनंत शान्ति.............
सुई भी नहीं गिर रही..........
शमशान के पीछे की शांति से भी ज्यादा खतरनाक........ ज्यादा विभात्सव........ आजमाइए.
    खुद को आप कितना भी दार्शनिक समझें – पर ८-१० घंटे दिमाग कि दही करने को बहुत हैं. नहीं रह सकते. हम लोगों की जीवनचर्या........ बिलकुल बदल गयी है. सारा दिन कितने लोगों से घिरे रहते है. कई बार लगता है – नहीं एकांत चाहिए......... पर आज एकांत को हजम नहीं कर पा रहे.



दिन के अंत में २ पैग अंदर जाते ही शांति – भक्ति में तब्दील हो जाती है. परमात्मा साक्षात् उपस्थित हो जाते हैं.
हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे
सूफी नृत्य....... तेज
और तेज
नहीं
नहीं


इस्कोन वाले गंजो जैसा नृत्य..........
तेज
और तेज
हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे

आध-पौन घंटे – नहीं शायद एक घंटे............
हरे कृष्ण हरे कृष्ण - कृष्ण कृष्ण हरे हरे
हरे राम हरे राम - राम राम हरे हरे

निढाल हो कर – फिर वही शान्ति.........................
निश्छल ........
शांत........
वो तख़्त ही तो साक्षी है..............

दिवार पर लगे चित्र से डैडी देख रहे हैं.......................
कुपुत्र की हरकतों को...
शान्ति.....
और
आंसुओं की वो अविरल धारा.......
पता नहीं कब तक...........
कब तक.........
वही आंसू


फोटो  mumbaimoments.com से साभार .

9 अक्तू॰ 2010

कबाड़ी, पेपोर, रद्दी वाला... तितली - मतवाला और मैं


कबाड़ी, पेपोर, रद्दी वाला............

कबाड़ी, पेपोर, रद्दी वाला............


मैं बालकोनी से झांक कर उसे देखता हूँ – साइकिल पर वज़न लादे – वो खड़ा है – मलीन कपड़ों में. एक लोहे के डंडे को आलम्ब देकर उसने साइकिल को खड़ा किया है. और सुरती बनाते बनाते – चिल्ला रहा है कबाड़ी, पेपोर, रद्दी वाला............
           सच, अगर ये कबाडी वाले न हो तो – पत्ता नहीं हमारा घर कितने कबाड से अट्टा-पट्टा रहे. कित्ते ही.... आप सोच कर देखिये........ क्या क्या नहीं ले जाता ये. बस हमारी दुःख तकलीफों को छोड़ कर. और शायद ये हमारे दुःख और दुस्वपन भी ले जाता है. आपकी बुरी यादें - वो कोर्स की विज्ञान और गणित कि किताबे जो नहीं पढ़ पाए. जिन किताबों को देखते ही दृष्टि तुरंत अपनी हथेलियों पर चली जाती है – कित्ते ही डंडे मारे थे – गणित के सरजी ने, वो सभी किताबे ले जाने को उद्दत है ये. नव यौवन के उस जज्बाती कालखंड में माशूक ने जो कविताओं की किताब आपको दी थी – प्रथम पृष्ठ पर अपने जज्बात लिख कर. जो घर के एक सुरक्षित स्थान पर रखी रखी आपको घूरती रहती है – चैन नहीं देती – सोने नहीं देती. तुलवा कर इस कबाडी को दे दो – एक दो सिगरेट या फिर चाय के पैसे मिलेंगे सो अलग और चैन कि नींद का आनंद अलग.


उसके झोले जो साइकिल के दोनों और झूल रहे है -  उसमे कुछ हिंदी के पुराने नोवेल झांक रहे थे..... मैं तुरंत नीचे उतरा और – उसका झोला उलट दिया......... मतवाला: लेखक-लोकदर्शी, पत्थर दिल और गुनाह – आदिल रशीद, उज्जली सुबह – लेखक मीनाक्षी माथुर, पाषाण पंख - लेखक नानक; ये सभी उपन्यास हार्ड बाइंडिंग में थे और सबसे उलेखनीय और सबसे बुरी दशा में जो था वो - जय शंकर प्रसाद कृत तितली का. अपने पुराने स्वरुप में मिला. ये सभी उपन्यास लगभग १९७०-७४ तक के काल में प्रकाशित हुए थे.  किसी लाइब्रेरी के थे – रद्दी वाले ने ढंग से जवाब नहीं दिया. 
        मैंने मूल्य पुछा – तो वो बोला की एक सरदार जी हैं – जिनकी पुरानी किताबों कि दूकान है – वो दस रुपे प्रति किताब के हिसाब से खरीदते हैं. जाहिर है – मैंने उसको पैसे दिए और उपन्यास कब्ब्जे में लेकर आ गया.


दुनिया घर से कबाड निकल कर बेचती है और साहब रद्दी उठा कर घर ले आये.
ज़ाहिर है होम मिनिस्टर के ये वक्तव्य आपका इन्तेज़ार कर रहे है.  
      ये उपन्यास पढ़ने ने के लिए क्या चाहिए ? शमशान के पीछे की शांति, तम्बाकू कि पुडिया और इसके  के साथ चाय के कप मिल जाए तो कहना ही क्या ?


लोकदर्शी : जाहिर सी बात है की उनका असली नाम नहीं होगा. असली नाम मालूम भी नहीं पड़ा. मतवाला – पढ़ने पर ब्लैक & व्हाइट कोई चलचित्र दिमाग में घूमने लगा. बढिया कथानक था - देवानंद या फिर धर्मेन्द्र का कोई हीरो, जो मतवाला सतीशहै मस्त आदमी है और मस्ती में फंस जाता है चक्रव्यूह में – और अपनी सादगी और दरियादिली से निकल भी आता है.  लोकदर्शी का लिखने का ढंग ऐसा ही कि पूरा उपन्यास ही आँखों के सामने चलचित्र की मानिंद घूमता रहता है.
जय शंकर प्रसाद कृत तितली –  अंग्रेजी हुकूमत के समय में ग्राम्य पृष्ठभूमि वाला उपन्यास है ये. प्रेमचंद के किसी भी उपन्यास जैसा ही.
      कहानी एक नारी पात्र – तितली को लेकर लिखी गई है. तहसीलदार, जमींदार, मुंशी और मंदिर के महंत नायक – मधुबन, कहानी के सह पात्र इन्द्रेश की माता इत्यादि.
बढिया कहानी थी ........... अंत तक तितली की छोटी – किन्तु व्यवस्थित गृस्थी पर खत्म होता है.
      सबसे मुख्या बात है – जय शंकर प्रसाद जी ने इस उपन्यास में जो जीवन दर्शनलिखा है बहुत बढिया है. उपन्यास मैंने बाईडर को दिया है ठीक करने के लिया. अगली पोस्ट में  कुछ पंक्तियाँ वहाँ से टीप कर टाइप करूँगा.

जय राम जी की.

फोटो : sarsonkekhet.blogspot.com  से आभार सहित.

6 अक्तू॰ 2010

आओ आज रुदाली के लय में हम भी गायेंगे

आओ सभी सवेदनशील मित्रों
मिल कर रोयें हम
चाँद की उदासी तुम उधार मांग लाना
और गंगा का उदार पाट तुम लाना
कैलाश की ऊँचाई तुम लाना ए प्रिय
और मैं उधार लायूँगा मयूर के आंसू
तुम रुदालियों को भी न्योत कर आना
न्यौता उनको जरूर देना
कि महाशोक का उत्सव है
और उन्हें आंसुओं के दाम जरूर मिलेंगे
एक महा रुदन होगा...........
जिसके लाइव टेलेकास्ट का जिम्मा
बस – दूरदर्शन को ही मिलेगा.
वो लाइव टेलेकास्ट...
जिसपर कोई सट्टा नहीं लगायेगा
कोई  हारने पर आत्महत्या नहीं करेगा
और, किसी का परिवार तबाह नहीं होगा
ऐसा लाइव टेलेकास्ट ही दिखायेगा.......
हमारी गरीबी को.....
हमारी लाचारी को....
हमारे उन खयालातों को ..............
जिन्हें ज़माने ने नक्सलवाद का नाम दिया.
क्योंकि.............
जो गुबारा मेरी संस्कृति दिखा रहा था .....
वो ... ७० करोड का था.

प्रिये मत्रों ......
आओ आज रुदाली के लय में
हम भी गायेंगे.......

3 अक्तू॰ 2010

२ अक्टूबर - ठगिनी क्यों नैना झमकावै? ठगिनी!

२ अक्टूबर २०१० समय दोपहर २-३ बजे के बीच और मैं पार्क के ठीक गेट के पास दूकान पर बैठ कर बोर हो रहा हूँ और महसूस कर रहा हूँ कि अगर घर में अगर नेट का कनेक्शन होता तो कुछ बेशक कुछ पोस्ट नहीं लिख पता पर टिपण्णी तो दे ही देता – और शायद कोई ब्लोगर खुश हो कर ५-७ रुपे फी टिपण्णी हिस्साब से मेरे अकाउंट में जमा करवा देता.

पर पता नहीं क्यों जिस जगह बैठा हूँ, वहाँ भी किसी चिट्ठाजगत से कम नहीं लग रहा. सभी ब्लोगर महोदय के पात्र घूमते हुवे नज़र आते है – दारू में धुत – बापू को श्रद्धांजलि देते हुए. २ अक्टूबर है – राष्ट्रीय छुटी है अत: लगता है कल दारू ही थोक में खरीद ली होगी.

बगल पार्क से एक शराबी आता है – जो ठीक धर्मेन्द्र की तरह कमीज़ के ३ बटन उपर के खोल रखे है – उसके २ मित्र और मित्रों कि भाभी – यानी उस शराबी की पत्नी उसको घर ले जाने की असफल चेष्टा करते हुई – लाला को पांच का सिक्का देती है और लाला उसको स्वत: ही १ कुबेर और २ दिलबाग के पाउच पकड़ा देता है. बड़े प्यार से से वो पतिदेव के जेब में डालती है. धीरे-धीरे ये लोग नाट्य-मंच से दूर हो जाते है....... पर दिमाग में नेपथ्य से वो प्यार भरी आवाजें आती रहती है.

नाट्य-मंच पर अकस्मात ही एक नेपालन औरत आती है और लाला को हँसते हुए कहती है, परेशान होकर मैंने ‘उसे’ नेपाल भेज दिया है. सारा दिन मर खप के पेट भरने लायक तो कमा ही लुंगी – पर बेज्जती बरदास्त नहीं होती. मुझे मारे – तो  चोट मुझे ही लगती है – पर आसपास के लोगो से उसको पिटते देखती हूँ तो भी चोट मुझे ही लगती है......... वो बोल रही है .........

पर नेपथ्य........ एक ओरत कूट पिट भी रही है और अपने पतिदेव को गर्म हल्दी-तेल भी लगा रही और और उसका चेहरा अपने शरीर की चोटों से कम और पति के जख्मो से ज्यादा दर्द से तपा जा रहा है. आकाशवाणी पर गाँधी बाबा का भजन गया जा रहा है – वैष्णो जन तो उनको कहिये, जो पीर पराई जाने रे.........

फिर धर्मेन्द्र कि पत्नी भागती पार्क कि तरफ से जा रही है, बोलती जाती है – कल फेक्टरी से २००० एडवांस मिले थे – पता नहीं लड़ाई झगडे में कहाँ गेर आया या किसने खींच लिए.
नंगे-पैर वो पार्क में चली जाती है.

थोड़ी देर धर्मेन्द्र फिर से साले कुत्ते, कमीने, माँ, भेण करता हुवा लडखडाता – चल रहा है.
आकशवाणी में ‘जागते रहो’ का गाना बज रहा है  जिंदगी ख्वाब है, ख्वाब मे झूठ है क्या और भला सच है क्या...
भारी मन से उठकर में पार्क जाता हूँ और उस झील में अपनी तम्बाकू कि पुडिया फैंक देता हूँ................. आज २ अक्टूबर है. टहलते टहलते शमशान कि तरफ चला जाता हूँ वहाँ एक शव को लेकर कुछ लोग आये हैं – में मन ही मन प्रणाम करके शमशान कि चारदीवारी के बाहर आ जाता हूँ, वहाँ (शमशान के पीछे) फिर ४-५ शराबी उलझे मिलते हैं, साथ में दोलक और मजीरा भी है. शायद कोई भोजपुरी या फिर पूर्व का कोई खांटी गीत गा रहे हैं. गीत कि लय को पकड़ कर में वही बेंच पर बैठ जाता हूँ, पर गीत के बोल समझ में नहीं आ रहे.


क्या हो रहा हैं यहाँ – कड़क आवाज में मैं पूछता हूँ.
आज छुटी है बाबू, एन्जॉय कर रहे हैं.............
बुरा मत माना बाबू................. लो इ लियो, कह कर एक प्लास्टिक का मय से भरा गिलास मेरी तरफ बड़ा देते हैं.
पता नहीं किस मूड में में वो गिलास थाम लेता हूँ..........


ढोलकी और मजीरे तेज बजने लगते हैं –
ठगिनी! क्यों नैना झमकावै!
कद्दू काट मृदंग बनावे, नीबू काट मंजीरा,
पाँच तरोई मंगल गावें, नाचे बालम खीरा
रूपा पहिर के रूप दिखावे, सोना पहिर रिझावे,
गले डाल तुलसी की माला, तीन लोक भरमावे।।

ये लोग अपने दिल में मस्त गाते जाते है


     वहाँ शमशान में अग्नि तेज़ी से शव के साथ-साथ मेरे नव अंकुरित प्रण को भी प्रजवलित करती है......... पता नहीं मुझे क्या हो जाता है
    मैं नाचने लग जाता हूँ,  उछलता हूँ - कुदद्ता हूँ, फिर मटके-झटके भी लगता हूँ,
कुछ दलीप कुमार के भाव बनाता हूँ, कुछ राजकपूर का अभिनय करता हूँ और आखिर नशे से बदमस्त होकर वहीं गिर जाता हूँ जहाँ घीसू और माधो गिरे थे.
आज २ अक्टूबर है ............ बापू का जन्मदिन....................
राष्ट्रीय छुट्टी है........ और दारू के ठेके बंद है.


picture : with thanks from google

1 अक्तू॰ 2010

फिजा में तैर रहे थे कुछ हर्फ़ महफूज़ से


फिजा में तैर रहे थे कुछ हर्फ़ महफूज़ से
दिल्लगी से मैंने छुए और -
हाथ में आये तो दास्तां बन गए.
कहीं हीर रांझा लिख दिया
और कहीं
सोहनी ते महिवाल लिख दिया.

कहीं कब्रों से उठ बैठा बुल्लेशाह...
इक नई इबारत पढ़ने के लिए.
इक नई इबारत गड़ने के लिए.

वो रांझा आज भी मारा फिरता है .
अपनी हीर की तलाश में.
जो मशरूफ है अपनी जिंदगानी में
अपनी जवानी में..
तख़्त हजारे को याद कर के
वो आज भी रोता है

हीर अब  चेटिंग से
रोज इक नई दास्तां बनाती है.